हिमालय की पुकार: प्रो0 अमित अग्रवाल

0
703

नदियों का स्वर, कभी जीवन का गीत था,
आज वही जल, भय का असीम मीत था।
बादल फटते हैं, धरती हिल जाती है,
गाँव की गलियों में आहट घबराती है।

भूस्खलन के बीच टूटते हैं सपने,
खेतों से बह जाते अन्न के अपने।
विकास की डगर पर छाया अंधियारा,
कंक्रीट ने ढक डाला जंगल का सहारा।

पर याद रखो, पर्वत की गोद अभी भी जीवित है,
हरियाली की प्यास में धरती संजीवित है।
यदि हम संभालें, पेड़ों की साँसों को,
तो थम सकते हैं, ये आँसू बरसों को।

गाँव का युवा जब उठेगा संकल्प लेकर,
“प्रकृति संग विकास” का दीप जलाकर,
तो न नदी रोकेगी, न पहाड़ टूटेगा,
नवआशा का सूरज हर घर में फूटेगा।

आओ मिलकर शपथ लें अभी,
धरती की मर्यादा न भूलेंगे कभी।
उत्तराखंड फिर खुलकर मुस्काएगा,
जब जनमानस प्रकृति संग जीना सीख जाएगा।

Previous articleयूजेवीएन लिमिटेड मुख्यालय उज्ज्वल में भगवान विश्वकर्मा जयंती धूमधाम से मनाई गई।
Next articleनवरात्र पर घर-घर की गई सांझी की प्राण प्रतिष्ठा!

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here