नदियों का स्वर, कभी जीवन का गीत था,
आज वही जल, भय का असीम मीत था।
बादल फटते हैं, धरती हिल जाती है,
गाँव की गलियों में आहट घबराती है।
भूस्खलन के बीच टूटते हैं सपने,
खेतों से बह जाते अन्न के अपने।
विकास की डगर पर छाया अंधियारा,
कंक्रीट ने ढक डाला जंगल का सहारा।
पर याद रखो, पर्वत की गोद अभी भी जीवित है,
हरियाली की प्यास में धरती संजीवित है।
यदि हम संभालें, पेड़ों की साँसों को,
तो थम सकते हैं, ये आँसू बरसों को।
गाँव का युवा जब उठेगा संकल्प लेकर,
“प्रकृति संग विकास” का दीप जलाकर,
तो न नदी रोकेगी, न पहाड़ टूटेगा,
नवआशा का सूरज हर घर में फूटेगा।
आओ मिलकर शपथ लें अभी,
धरती की मर्यादा न भूलेंगे कभी।
उत्तराखंड फिर खुलकर मुस्काएगा,
जब जनमानस प्रकृति संग जीना सीख जाएगा।





