मानव सृष्टि में धर्म और अध्यात्म शक्ति अपना एक महत्वपूण स्थान रखती है, और इसीलिए ही इन शक्तियों का मनुष्य के जीवन में भोजन, आराम, लौकिक व्यवहार, कमाई आदि की तरह ही विशेष महत्व है। अमूमन हम सभी, धर्म और अध्यात्म को एक जैसा ही समझते हैं और इसीलिए ही आज समाज में इन दो भिन्न सत्ताओं को लेकर काफी सारी भ्रान्तियां फैली हुई है। परन्तु वास्तव में देखा जाये तो धर्म और अध्यात्म में बहुत अन्तर है। आध्यात्मिकता मनुष्य आत्मा के मूल गुण, स्वभाव और संस्कार का नाम है इसलिए सार्वभौमिक सत्य होने के कारण उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम और सभी धर्मों के मनुष्यों को वह सहज स्वीकार्य होती है। यदि हम सार रूप में ‘‘आध्यात्मिकता क्या है?’’ इसका उत्तर पाना चाहते हैं, तो सरल भाषा में यही कहेंगे की ‘स्वयं को परमात्म शक्ति में अर्पण करना तथा उसी की प्रेरणानुसार अपने जीवन में विकसित होना यही सच्ची आध्यात्मिकता है’ और इसीलिये ही एक आध्यात्मिक व्यक्ति का जीवन सदा आन्तरिक चेतना द्वारा संचालित होता है, फिर चाहे वह कैसी भी अवस्था में व् किसी भी कर्म में लीन क्यों न हो, उसे निरंतर सर्व शक्तिमान से आन्तरिक आदेश मिलता ही रहता है। आम तौर पर जब आध्यात्मिकता के बारे में कोई बात चलती हैं, तब लोग, भगवान, धर्म, रीति-रिवाज आदि के बारे में ही सोचते हैं। मसलन कोई व्यक्ति जो प्रति दिन मंदिर में जाकर देवी देवताओं की मूर्ति के आगे पूजा अर्चना करता हैं, वह खुदको बहुत अध्यात्मिक समझता हैं, पिफर भले ही उसका मन पूजा करने मे कम और यहाँ वहां की बातो में ज्यादा व्यस्त क्यों न हो। इन्हीं सब बातों के कारण आज की आधुनिक पीती हैं की व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं, और इसीलिए ही वे इसे अव्यावहारिक समझते हैं। किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं, क्योंकि मूल रूप से देखा जायें तो आध्यात्मिकता में साम्प्रदायिक धर्म तथा का कोई स्थान नहीं होता। वहाँ तो जो सत्य है वही स्वाभाविक रूप से ग्रहण किया जाना चाहिए। अमूमन लोगों की यह मान्यता होती हैं की घर-बार छोड़े बिना आत्मज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है। परन्तु आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान के अनुसार मन की शांति या आत्मबोध की प्राप्ति के लिए घरबार छोड़कर कहीं दूर जंगल में जाने की आवश्यकता ही नहीं है, बल्कि अपने ही घर संसार में रहते हुए अपनी समस्त मानसिक कमजोरियों का त्याग कर स्वयं को आन्तरिक स्तर पे स्थिर करके भीतर से जो आदेश मिले उसका पालन करके हम अपनी आत्मा को प्रबु( कर सकते हैं। आध्यात्मिक सत्ता बाकी सब सत्ताओं को नियम व मर्यादाओं पर चलने का न केवल मार्ग दिखाती है अपितु चलने की शक्ति भी भरती है। साथ-साथ आध्यात्मिकता हमें कर्मगति का भी ज्ञान देती है इसलिए आध्यात्मिक प्रेमी व्यक्ति का, समाज या देश को किसी प्रकार से हानि पहुँचाने वाले कर्म पर अंकुश बना रहता है। आध्यात्मिकता मनुष्य को केवल एक-कालिक पफायदे वाले कर्म नहीं अपितु सर्वकालिक पफायदे वाले कर्म सिखलाती है। अध्यात्म हमें यह भी सिखाता है कि हम सत्यता को अवश्य ही प्रकट करें, किन्तु सत्यता जैसी सुन्दर अनमोल वस्तु को सभ्यता जैसे सुन्दर गिफ्रट पेपर में लपेटकर दूसरों के समक्ष रखें, अन्यथा असभ्यतापूर्वक प्रकट की गई सत्यता मूल्यविहीन होती है और अपमानित भी। दुर्भाग्य से आज समाज के अंदर आध्यात्मवाद की चर्चा तो बहुत बड़े पैमाने पर होती है, परन्तु उसकी वास्तविकता का लोप हो रहा है यह भी हमें मानना होगा। हमें यह किंचित भी भूलना नहीं चाहिए की हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक कल्याण उस सच्चे आध्यात्मवाद पर ही निर्भर है, अतः हमें सच्चे आध्यात्मवाद की तलाश करनी चाहिए और उसे ही अपनाना चाहिए।






