यह एक ज्ञात तथ्य है की भारतवर्ष की सबसे बड़ी वर्तमान समस्या अनैतिकता और भ्रष्टाचार की है और इसीलिए ही जो भी सरकारे सत्ता पर आती हैं, उनका सबसे मुख्य उद्देश यही होता हैं की शासन को भ्रष्टाचार से मुक्त कैसे रखा जायें। विनोबा जी के शब्दों में ‘‘भ्रष्टाचार तो आज शिष्टाचार हो गया है क्योंकि जब सभी लोग ऐसा करने लगें तो यह भ्रष्टाचार नहीं शिष्टाचार हो जाता है। भ्रष्टाचार तभी तक है जब तक कुछ लोग उसे करें, लेकिन सब लोग उसे अपना लें तो वह शिष्टाचार हो जाता है।’’ व्यावहारिक रूप से देखा जाएँ तो भ्रष्टाचार शब्द बना है भ्रष्ट और आचार शब्द के मिश्रण से, जिसका अर्थ है आचरण का भ्रष्ट हो जाना। सरल शब्दो मे इसका अर्थ यह हुआ की- मानव के आचरण में जब आत्मिक स्नेह के बजाय काम विकार आ जाता है, शान्ति के स्थान पर क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो जाती है, मिल-बाँट कर जीवनयापन करने की जगह लालच और संग्रह की वृत्ति ले लेती है, सर्व का भला सोचने की जगह कुछ गिने-चुने लोगों के भले के लिए स्वार्थ की पट्टी आँखों पर बंध जाती है और नम्रता का स्थान अहंकार ले लेता है तो समझना चाहए कि वह श्रेष्ठ आचरण से गिरकर भ्रष्ट आचरण वाला हो गया। संसारमे भ्रष्टाचार का अर्थ लिया जाता है धन-साधनों की बेईमानी से परंतु अध्यात्म में इसका अर्थ बड़ा विस्तृत है। अध्यात्म कहता है कि ‘अपने को आत्मा समझने के बजाय, शरीर समझकर जो भी कर्म किये जाते हैं, वे सभी भ्रष्टाचारी कर्म हैं।’ अपने को देह समझकर, दूसरे को देहदृष्टि से देखने से जाति, वर्ग, प्रांत, भाषा, लिंग आदि भेद पैदा होते हैं और इसी कारण अहम भाव या हीन भावना भी आती है और स्वार्थ, दिखावा, ईष्र्या, बदले की भावना, नीचा दिखाने की भावना भी पैदा होती है। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि हम शरीर नहीं हैं तो पिफर क्या हैं? खुदको हम शरीर न समझें तो पिफर क्या समझें? इस प्रश्न के उत्तर में भी अध्यात्म कहता है कि शरीर तो पाँच तत्वो का आवरण मात्रा है और पाँचों तत्वों में से किसी में भी बोलने, चलने, सोचने, समझने की शक्ति तो है नहीं। अतः इस आवरण के भीतर, अति सूक्ष्म पर अति शक्तिशाली एक दिव्य शक्ति मौजूद है जो इतने भारी भरकम शरीर को चलाती है, उठाती है और इसके द्वारा सारे कर्मों को अंजाम भी देती है। इसीलिए हर व्यक्ति कहता है, मेरी आँख, मेरा मुख, मेरे हाथ-पैर आदि। कोई भी कभी यह नहीं कहता कि मैं आँख हूँ या मुख हूँ या हाथ या पैर हूँ। अगर यह छोटी-सी बात हम सभी समझ जायें तो इस संसार से भ्रष्टाचार मिट जायेगा और श्रेष्ठाचार आ जायेगा और हर व्यक्ति श्रेष्ठ बनकर सुखी, शांत और संपन्न बन जायेगा। भ्रष्टाचार से मुक्ति का सहज और सरल साधन आज यदि कोई है तो वह है भारत का प्राचीन ‘सहज राजयोग’ जो स्वयम परमपिता परमात्मा के सिवाय और कोई सिखला नहीं सकता। अगर हमें सच्चा-सच्चा श्रेष्ठाचारी बन भारत एवं सम्पूर्ण विश्व को भी भ्रष्टाचार मुक्त बनाना हैं तो हमें राजयोग की सहज विधि को सीखना होगा। स्मरण रहे! हम बदलेंगे तो जग बदलेगा। – विशेष आलेख (राज योगी ब्रह्मकुमार निकुंज)
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