मेरा बचपन: रवींद्र कुमार शर्मा

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समय था बहुत पुराना, वह भी क्या था ज़माना, जब सबके घर में थे झांकते, बेरोकटोक था आना जाना, पट्टी पर गाज़ण थे चढ़ाते, नाल की कलम से थे लिखते जाते, केले के पत्तों को, जलाकर बनती थी स्याही, कलम से हाथ मुंह काले करके थे घर आते, किताबें नई नहीं थी होती, पुरानी से काम थे चलाते, हर साल नहीं बदलते थे किताबें, बड़े भाई बहिन की किताब से थे पढ़ जाते, सैल से निकालते थे कांटा, पट्टी पर लाइनें उसी से थे लगाते, मशक देते थे उसी से अध्यापक, कान भी खींचते थे डंडे भी थे बरसाते, जूते नहीं होते थे, नंगे पांव स्कूल थे जाते, अरमानों से भरी काग़ज़ की किश्ती, बरसात के पानी में खूब थे चलाते, पैसा नहीं होता था जेब में, फिर भी कागज़ के जहाज थे उड़ाते, गुल्ली डंडा बहुत थे खेलते, गुल्ली को बहुत दूर थे गिराते, आजकल के बच्चे टैब हैं चलाते, पर हम लकड़ी की पट्टी पर थे लिखते जाते, स्लेट के ऊपर स्लेटी से थे लिखते, गलत को झट थूक से थे मिटाते, अब वह बचपन न जाने कहाँ खो गया, पीठ पर भारी बस्ता जमाने को क्या हो गया, नौनिहाल करे तो क्या करे, होम वर्क करते करते ही सो गया.

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