हिमालय की चोटियों पर जब पहली धूप गिरती है, तो जैसे देवभूमि के हर घाट, हर जंगल और हर बगिया में कोई मधुर स्वर गूंज उठता है। वह स्वर सिर्फ़ गीत नहीं होता — वह हमारी धरती का इतिहास, हमारी नदियों की गूंज, हमारे खेतों की खुशबू और हमारी भाषा की आत्मा होता है। उस स्वर का सबसे शुद्ध रूप हैं नरेंद्र सिंह नेगी जी — गढ़वाली गीतों के ऋषि, जिन्होंने हमारे लोक को स्वर, शब्द और भावना में बाँधकर अमर कर दिया। नेगी जी के गीतों में चीड के जंगल हिलते हैं, बुरांश के फूल खिलते हैं, पहाड़ों की बर्फीली हवाओं में प्रेम की गर्माहट महसूस होती है। उनकी वाणी में माँ की लोरी की मिठास है, पितृभूमि की पुकार है, और अपनेपन का स्पर्श है।
आज, उनके जन्मदिन पर, देवभूमि के मंदिरों की घंटियों में, नदियों के कलकल में, और हर गाँव के आँगन में यही आशीष गूँज रही है— “नेगी जी, आप लंबी उम्र जिएं, स्वस्थ रहें, और अपनी वाणी से हमें यूँ ही हमारे लोक से जोड़ते रहें।”
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ,
आपके गीत अमर रहें,
और आपके स्वर पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहाड़ की आत्मा को जीवित रखें।
शीशपाल गुसाईं






